पहली वर्षगांठ पर मोर्चों पर किसानों का विराट समागम जीत के जश्न के साथ शहीदों के सपनों को मंजिल तक पहुंचाने, MSP व अन्य लंबित मांगों की अधूरी लड़ाई को जारी रखने के संकल्प का ऐलान भी बन गया।
एक साल के ऐतिहासिक आंदोलन और अकूत बलिदान के बाद किसानों को तो अभी कोई material gain नहीं हुआ है, पर उनके महान आन्दोलन ने इस देश को बहुत कुछ दिया है। सच यह है कि किसानों ने 1 साल में इस देश को बदल कर रख दिया है और एक बार फिर सबको याद दिला दिया है कि “किसान इस देश की आत्मा हैं ” और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की धुरी हैं।
याद कीजिये नवम्बर 2020 का भारत कितना डरा-सहमा देश था। संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए Article 370 का खात्मा-कश्मीर का विभाजन, CAA-NRC-NPR का खौफ, उसके खिलाफ उठ खड़े हुए शाहीन बागों के विरुद्ध साम्प्रदायिक उन्माद, दिल्ली दंगे के नाम पर अल्पसंख्यकों का भीषण दमन, भीमा कोरेगांव मामले में ताबड़तोड़ बुद्धिजीवियों, लोकतान्त्रिक शख्सियतों की गिरफ्तारियां, मज़दूर-विरोधी लेबर कोड और अंततः पहले अध्यादेश, फिर राज्यसभा में कानूनी-संवैधानिक प्रावधानों को बुलडोज़ करते हुए खुले-आम कारपोरेट के पक्ष में कृषि कानूनों की घोषणा-ऐसा लग रहा था कि भारत अब एक कारपोरेट- फ़ासिस्ट हिन्दू राष्ट्र बन कर रहेगा, शायद 2025 में संघ की शताब्दी के बहुत पहले ही ! तब का भारत एक डरा हुआ, आतंकित, तनावग्रस्त-चिंताकुल भारत था, जो लोकतन्त्र पर लटकती तलवार और अघोषित आपातकाल के साये में जी रहा था।
19 नवम्बर को घुटने टेक कर मोदी सरकार द्वारा कानूनों की वापसी की घोषणा से देश ने राहत की सांस ली है, लगता है कि देश फासीवाद के खूनी पंजे से लहूलुहान बाहर निकल आया है। यह स्पष्ट सन्देश गया है कि
मोदी-शाह-संघ-भाजपा नहीं, अपराजेय इस देश की महान जनता है, किसान योद्धा हैं।
किसान-आंदोलन ने हमारे लोकतन्त्र को बचा लिया है। इतिहास का यह सबक एक बार फिर सही साबित हुआ कि फासीवाद का नाश मेहनतकश वर्गों के प्रतिरोध से ही होता है। स्वाभाविक रूप से इसमें हरे और लाल झंडे की एकता ने, किसानों और मेहनतकशों की एकता ने, किसान योद्धाओं और वामपन्थी -कम्युनिस्ट ताकतों ने निर्णायक भूमिका निभाई है। शहीद भगत सिंह के विचार और बलिदानी परम्परा, डॉ0 आंबेडकर के संवैधानिक मूल्य और गांधीवादी सत्याग्रह की प्रेरणा इनका सबसे बड़ा सम्बल बनी।
आंदोलन की रैडिकल अन्तर्वस्तु और इसकी ऐतिहासिक उपलब्धि को dilute करने के लिए कहानी गढ़ी जा रही है कि मोदी जी ने security concerns की वजह से कानून वापस लिए, आंदोलन के दबाव या चुनावी नुकसान के डर से नहीं। एक चर्चित बुद्धिजीवी ने जो अभी कल तक आंदोलन की obituary लिख रहे थे, प्रस्थापना दिया कि कृषि कानूनों को वापस लेकर मोदी जी ने ( सिखों की ओर दोस्ती का हाथ बढाकर ) सावरकर के हिंदुत्व की रक्षा की है ! कोई उनसे पूछे कि 26 जनवरी को जब सिख विरोधी उन्माद भड़काया जा रहा था, सिखों का जन-संहार प्रायोजित किया जा रहा था, उस समय सावरकर का हिंदुत्व कहाँ था ?
बहरहाल, कृषि-कानून निरस्त होने के बाद भी किसानों की असल लड़ाई- अपनी फसल और मेहनत की वाजिब कीमत के लिए MSP की कानूनी गारण्टी की-वह तो अभी जस की तस है। आंदोलन की पहली वर्षगांठ का जश्न MSP की लड़ाई के लिए संकल्प का ऐलान भी बन गया।
कृषि कानूनों के सूत्रधार अशोक गुलाटी की वह बदतरीन आशंका और मोदी को दी गयी चेतावनी सच साबित होने जा रही है कि कृषि कानूनों की वापसी से नवउदारवादी सुधारों के पूरे पैकेज के लिए खतरा पैदा हो सकता है, उनके रोलबैक के लिए लड़ाई छिड़ सकती है ! आने वाले दिनों में विनाशकारी मोदी-राज के खिलाफ बहुआयामी जनांदोलनों की इंद्रधनुषी छटा देखने को मिल सकती है जो इस देश मे नीतिगत बदलाव का वाहक बनेगी।
कारपोरेट-फासीवादी स्टेट के गठजोड़ को विजयी चुनौती देने वाला यह आंदोलन न सिर्फ हमारे देश के आंदोलनों के इतिहास में एक अलग मुक़ाम हासिल कर चुका है, वरन वैश्विक पैमाने पर भी वित्तीय पूँजी-WTO के हमले के खिलाफ पूरी दुनिया में लड़ते किसानों-मेहनतकशों के लिए मॉडल बन चुका है।
किसान-आंदोलन ने इस देश को बदल दिया !
कारपोरेट-फ़ासिस्ट सत्ता के विरुद्ध साल भर से बेखौफ डटा किसान-आंदोलन पूरी दुनिया के मेहनतकशों के लिए प्रेरणा !
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