जाति के आंकड़े तय करेंगे राजनीति का गणित? ओबीसी डेटा से बदलेगा सियासी समीकरण?

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मुख्य लेख:
जातिगत जनगणना का सीधा अर्थ होता है — देश में किस जाति के कितने लोग हैं, इसका स्पष्ट और आधिकारिक आंकड़ा सामने लाना। भारत में पहले भी जातिगत जनगणनाएं हुई हैं, लेकिन तब ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) को इसमें शामिल नहीं किया गया था। अब केंद्र की मोदी सरकार ने इस लंबित मांग को स्वीकार करते हुए जातिगत जनगणना करवाने का फैसला लिया है। इस फैसले ने देश की राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है।

विपक्ष इसे अपनी जीत मान रहा है। उनका दावा है कि कांग्रेस और समाजवादी दल लंबे समय से इस पर दबाव बना रहे थे, जिसके बाद केंद्र ने यह कदम उठाया है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर जातिगत जनगणना की ज़रूरत क्यों पड़ी?

क्या है जातिगत जनगणना?
इस प्रक्रिया में यह पता लगाया जाता है कि किस जाति के लोग कितनी संख्या में देश में रहते हैं। चूंकि अब तक ओबीसी वर्ग को जनगणना में उपेक्षित रखा गया था, इस बार सभी की निगाहें इसी पर रहेंगी कि ओबीसी की आबादी वास्तव में कितनी है।

इतिहास क्या कहता है?
जातिगत जनगणना की शुरुआत ब्रिटिश काल में हुई थी। आखिरी बार वर्ष 1931 में जाति आधारित सेंसस पूरी तरह किया गया था। आज़ादी के बाद 1951 में जो जनगणना हुई, उसमें ओबीसी को छोड़ सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजातियों की गिनती हुई। 2011 में एक सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) जरूर हुई थी, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।

अब क्यों पड़ी ज़रूरत?
मंडल कमीशन ने 1980 में कहा था कि ओबीसी की आबादी 52% है, लेकिन यह डेटा 1931 के सेंसस पर आधारित था। अब तर्क यह है कि इतने वर्षों में सामाजिक समीकरण बदले हैं, इसलिए सटीक आंकड़े सामने आने चाहिएं।

साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के फैसले में आरक्षण की सीमा 50% तय की गई है, लेकिन अगर ओबीसी की संख्या आधिकारिक रूप से ज्यादा पाई जाती है, तो यह सीमा राजनीतिक बहस का मुद्दा बन सकती है। विरोध करने वालों का कहना है कि इससे सामाजिक बंटवारा बढ़ेगा, जबकि समर्थकों के अनुसार यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक अहम कदम होगा।

क्या है फायदा?
जातिगत जनगणना से यह पता चल सकेगा कि कौन-से वर्ग शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। इससे केंद्र और राज्य सरकारों को नीति निर्माण में मदद मिलेगी और जरूरतमंद वर्गों को सही सहायता पहुंचाई जा सकेगी।

बीजेपी की बदली सोच?
बीजेपी की शुरुआत ऊंची जातियों की पार्टी के रूप में हुई थी। लेकिन मंडल बनाम कमंडल की राजनीति के दौर से गुजरते हुए, मोदी सरकार के दौर में पार्टी ने ओबीसी वर्ग को साधने की रणनीति अपनाई। 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर ऊंची जातियों को 10% आरक्षण देकर भी भाजपा ने एक नया समीकरण गढ़ा। अब बीजेपी ओबीसी समुदाय में पहले से कहीं ज्यादा स्वीकार्य बन चुकी है।

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