अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत पर तालिबान को दोबारा क़ाबिज़ हुए दो साल पूरे हो चुके हैं. लेकिन, अब तक दुनिया के एक भी देश ने उनकी सरकार को मान्यता नहीं दी है.
यहां तक तालिबान की हुकूमत से किसी तरह की बातचीत करना भी विवाद का विषय बना हुआ है.
कुछ लोगों का कहना है कि तालिबान से बातचीत करने से उनकी सोच, उनका नज़रिया बदलने में मदद मिलेगी.
वहीं, कुछ और लोगों का कहना है कि तालिबान कभी नहीं बदलेगा, इसलिए उनसे बात करने का कोई मतलब नहीं बनता.
आज जब दुनिया इस उलझन में पड़ी है कि वो तालिबान के नए शासकों से किस तरह निपटे, तो महिलाओं के अधिकार इन सियासी लड़ाइयों का नया मोर्चा बन चुके हैं.
अफ़ग़ानिस्तान को लेकर पश्चिमी ताक़तों और इस इलाक़े के देशों के बीच कुछ मामलों में राय भले अलग रही हो, और उनके बीच कभी कभार टकराव भी दिखा है. लेकिन, आम तौर पर दोनों ही पक्षों के बीच तालिबान को लेकर आम राय बनी रही है. तालिबान को मान्यता देने और कुछ विवादित मसलों को लेकर बड़ी ताक़तों के बीच एक दुर्लभ आम सहमति दिखी है.
इनमें रूस और चीन जैसे देश भी शामिल हैं, जो अक्सर पश्चिमी देशों के रुख़ का विरोध करते रहे हैं.
मगर, तालिबान और बाक़ी दुनिया के बीच तनातनी का सबसे बड़ा खामियाज़ा आम अफ़ग़ान नागरिकों को उठाना पड़ा है. उनके लिए तो इसके तबाही वाले नतीजे निकले हैं.
अफ़ग़ानिस्तान पिछले चार दशकों से भी ज़्यादा वक़्त से जंग का शिकार रहा है. अब दुनिया के किसी भी देश में इतनी ताब नहीं बची है कि वो इस ख़ूनी इतिहास में एक और रक्तरंजित अध्याय जोड़े.
और, भले ही तालिबान के नेताओं के बीच असंतोष और मतभेद दिखते हों. लेकिन, सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही है कि उनके बीच एकता बनाए रखी जाय. ये सबसे अहम बात है.